महोवा का युद्ध समाप्त हो चूका था, महोवा तथा कलिकंजर पर पृथ्वीराज का अधिकार हो गया था, उन्होंने केवल महोवा को अपने अधिकार में लेकर करद राज्य बना कर वापस परमार को सौंप दिया, तारायन के युद्ध में भी विजयलक्ष्मी पृथ्वीराज को वरमाला पहना ही चुकी थी. इस विजय के कारण दिल्ली में कुछ दिनों तक उत्सव मनाई जाने लगी थी. इस धूमधाम और पृथ्वीराज के बार बार जीत के कारण जयचंद मन ही मन जल रहा था, साथ ही साथ संयोगिता ने जो पृथ्वीराज के कारण जयचंद का जो अपमान किया था उससे उसका माथा और भी झुक गया था. इधर पृथ्वीराज के मन में संयोगिता को पाने की इच्छा बढ़ती ही जा रही थी, ब्राह्मणों ने पृथ्वीराज को ये खबर दे दी की संयोगिता को जयचंद ने गंगा किनारे किसी महल में कैद कर रखा है. पृथ्वीराज ने अपने मित्र चंदरबरदाई को कन्नोज की राजधानी राठौर चलने का आग्रह किया, कवि चन्द्र ने उन्हें बहुत समझाना चाहा की जयचंद बहुत ही बलवान राजा है, उसने थोड़े से ही सेना के साथ दिल्ली नगरी के सैंकड़ो गावों को जला दिया और लूट लिया था उसने कई तरह से आपकी प्रजा को कष्ट पहुंचाया अतः आपका वहां जाना किसी भी तरह से उचित नहीं है. इतना समझाने पर भी पृथ्वीराज ने कवी चन्द्र की एक ना मानी, अंत में लाचार होकर उन्हें पृथ्वीराज के साथ ही जाना पड़ा. इसके कुछ दिन बाद एक शुभ मुह्रुत देखकर पृथ्वीराज, चंदरबरदाई और अपने कुछ सामंतों के साथ वो भेष बदलकर कन्नोज की ओर चल दिए उनके साथ कुछ थोड़ी सेना भी थी. जिस समय वे कन्नोज की ओर निकले थे उस समय कई सारे अपशकुन हुए थे, परन्तु पृथ्वीराज अपने सामंतों के मना करने पर भी कन्नोज की ओर अग्रसर होते चले गए, कभी कभी मनुष्य को इश्वर भी कई तरह से समय असमय की बातें बताने की कोशिश करता है पर ये तो मनुष्यों पर निर्भर है की वो उनकी बात मानता है या नहीं. इन्ही कार्यों का नाम] शकुन और अपशकुन रखा गया है. पृथ्वीराज के समोंतों को ये एहसास हो गया था की कुछ बहुत गलत होने वाला है पर पृथ्वीराज के सामने कोई भी कुछ बोलने से कतरा रहा था. पृथ्वीराज ने कन्नोज पहुँच कर अपने बदले हुए भेष में ही कन्नोज राज्य घूमा. जयचंद के पास तीन लाख घुड़ सवार, एक लाख हाथी और दस लाख पैदल सेना थी जो की भारतवर्ष की एक बहुत ही शक्तिशाली राज्य थी. पृथ्वीराज ने जयचंद के इन सैनिक बल और दस हजारी सेना को देखा जो राज्य का स्तंभ स्वरूप कड़ी थी, इसे देखकर पृथ्वीराज का विशाल ह्रदय भी कांप उठा, परन्तु अब क्या हो सकता है जिस काम के लिए घर से निकले है उसे तो अब पूरा करना ही था. कवि चन्द्र पृथ्वीराज को लिए जयचंद्र के द्वार के फाटक पर पहुँच गए, जयचंद्र के पास कवी चन्द्र के आने की खबर पहुंची, जयचंद्र चंदरबरदाई के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था, जयचन्द्र वीरों और कवियों की सम्मान में कोई कसर नहीं छोड़ता था इस लिए वो अपने दरबार के कुछ कवियों को कवी चन्द्र के पास भेज कर पहले उनकी परीक्षा करवाई और फिर दरबार में बुला लिया. दरबार में कवी चन्द्र ने जयचंद्र के पूछे हुए कितने ही सवालों का जवाब दिया. चन्द्रबरदाई ने कहा:-
”जहाँ वंश छतीस आवे हुंकारे.
तहां एक चहूवान पृथ्वीराज टारे
. कवि चन्द्र के ये अंतिम पद जयचंद्र के ह्रदय में तीर सा जा चुभे उसके नेत्र लाल हो गए. वह भयानक रूप से क्रोधित हो उठा, कवि चन्द्र ने पृथ्वीराज की प्रसंसा में इतने जोरदार सब्द कहे थे की वहां मौजूद सभी लोग स्तब्ध होकर कवी चन्द्र और जयचंद को देखने लगे थे. जयचंद इर्श्यन्वित हो उठा उसके छाती में सांप लोटने लगे उसने एक लम्बी ठंडी सांस भरी और कहा-
“पृथ्वीराज अगर मेरे सामने आये तो बताऊँ”
. पृथ्वीराज चन्द्रबरदाई के सेवक के रूप में पहले से ही पीछे खड़े थे, जयचंद की बातें सुनकर पृथ्वीराज भी बहुत क्रोधित हो उठे यद्यपि उन्होंने अपने आप को उस समय बहुत संभाला लेकिन उनके नेत्रों का रंग ही गुस्से से बदल गया, जयचंद ये देखकर मन ही मन संदेह करने लगा की कहीं ये ही तो पृथ्वीराज नहीं, लेकिन फिर सोचा पृथ्वीराज जैसा तेजस्वी पुरुष चन्द्रबरदाई का सेवक बन कर यहाँ क्यों आएगा, इस भ्रम में वो कुछ नहीं कहा. इसी बीच एक और घटना घटी. जयचंद की दासियाँ दरबार में पान लेकर आई उन दसियों में कर्नाटकी भी थी. कर्नाटकी ने ये प्रतिज्ञा ली थी की वो पृथ्वीराज के अलावा सभी के सामने घूंघट करेगी. वो जैसे ही पृथ्वीराज के सामने आई उसने पृथ्वीराज को पहचान लिया और वैसे ही घूंघट को हटा दिया. यह देखकर दरबार में सन्नाटा छा गया. सभों को ये यकीन होने लगा की पृथ्वीराज दरबार में चंदरबरदाई के साथ अवश्य ही मौजूद है. वे सभी एक दुसरे से काना फूसी करने लगे. जयचंद के कितने सामंतों ने तो ये कह दिया की पृथ्वीराज इनके साथ ही है इसलिए इन्हें बंदी बनाकर रख लिया जाए, परन्तु जयचंद ने सभों को रोक लिया. कवि चन्द्र बहुत ही तीक्ष्ण बुद्धि वाले थे,दरबार का बदला हुआ रुख देखकर उन्होंने तुरंत कहा:-
”करि बल कलह सुमंत्री मासों,
नाहीं चहुवान सरन्न्न विचासो.
सेन सुवर कही कवि समुझाई,
अब तू कलह करन इहां आई.””
इतना कह कर कवी चन्द्र ने इशारों में उसे समझा दिया की
“ तू हमारा काम ख़राब कर रही है,क्या तू यहाँ युद्ध करवाने के लिए आई है. कवी का इशारा समझ कर कर्नाटकी ने आधा माथा ढक लिया.जब इसका कारण कर्नाटकी से पूछा गया तब उसने कहा की कवी चन्द्र पृथ्वीराज के बचपन के साथी है इसलिए मैं उनका आधा लाज रखती हूँ, इस तरह से ये बात उस समय तो दब कर रह गयी लेकिन जयचंद्र का संदेह दूर नहीं हुआ था. इसके बावजूद उसने कवी चन्द्र की बहुत खातिरदारी की, उसने नगर के पश्चिम भाग में कवी चन्द्र के रहने का प्रबंध कराया और अतिथि सत्कार किया. उसने अपने सेवकों से उनपर नज़र रखने के लिए भी भी कह दिया. उसके सेवक ने उसे कवी चन्द्र की हर सूचना जयचंद को देना शुरू कर दिया, उसने कहा की कवी चन्द्र के साथ एक विचित्र नौकर है उसके ठाठ बात, रहन सहन, शान शौकत को कवी चन्द्र भी नहीं पा सकता है. पृथ्वीराज यद्यपि नौकर बनकर वहां गए थे लेकिन जिस मकान पर वे रुके थे वहां पर उनका सम्मान अन्य सामंत एक राजा के रूप में ही कर रहे थे, वो एक ऊँचे आसन में बैठे थे, उन्हें बैठे हुए जयचंद के सेवक ने देख लिया था, और जाकर जयचंद को इसका समाचार दे दिया की कविचंद्र के साथ पृथ्वीराज भी अवश्य ही आये हुए है, जयचंद को तो पहले से ही संदेह था अब तो उसे पूरा विश्वास हो गया था. उसने अपने खास खास सैनिकों को एकत्र किया और चन्द्र बरदाई को विदाई देने के लिए हाथी, घोड़े और बहुत सा रत्न लेकर उनकी और रवाना हो गए. उसने अपने सैनिकों को समझा दिया की कवी चन्द्र का कोई भी साथी भागने नहीं पाए. जयचंद अपने साथियों के साथ चंदरबरदाई के पास पहुँच गया, थोड़ी देर तक उन्होंने शिष्टाचार की बातें की उसके बाद जयचंद ने कवी चन्द्र के सेवक बने पृथ्वीराज को पान देने का आदेश दिया, पृथ्वीराज चौहान ने उन्हें पान दिया पर बाएं हाथ से ऐसे अशिष्टता को देखकर जयचंद जल भुन गया पर ऊपर से प्रसान्नता दिखाते हुए वो कुछ नहीं बोला, इस तरह की अनेक बातें उस समय हुई, जयचंद पृथ्वीराज को गौर से देखने लगा परंतू पृथ्वीराज ने इस तरह से अपना भेष बदल रखा था की जयचंद के बार बार देखने पर भी वो पृथ्वीराज को नहीं पहचान पाया. जयचंद को विश्वास होते हुए भी उस समय कुछ न बोल पाया क्योंकि अगर वो सेवक पृथ्वीराज न निकला तब उसकी बड़ी बदनामी होती और लज्जित भी होना पड़ता, इस डर से वो चुप रहना ही उचित समझा और अपने महल लौट आया. जयचंद क्रोध से अपने मंत्री से कहने लगा की हमें पृथ्वीराज को पकड़ कर मार डालना चाहिए इससे संयोगिता की आश भी टूट जायगी और मेरा अपमान का बदला भी पूरा हो जायेगा. राजमंत्री सुमंत ने कहा की इतने बड़े प्रतापी राजा को पकड़ कर मारना कदापि संभव नहीं है और पृथ्वीराज यहाँ चंदरबरदाई के साथ क्यों आयेंगे. इस विषय में आपको चंदरबरदाई से ही सीधे सीधे पुच लेना चाहिए.वो कदापि झूठ नहीं बोलेंगे. जयचंद को अपनी मंत्री की बात अच्छी लगी क्योंकि उन्हें मालूम था की चंदरबरदाई कभी झूठ नहीं बोलते है. अतः उन्होंने चंदरबरदाई को बहुत ही आदर के साथ बुलाकर पुछा की क्या पृथ्वीराज तुम्हारे साथ है, चंदरबरदाई ने इसका जवाब बहुत ही खूबसूरती से अपनी ओजस्वनी भाषा में पृथ्वीराज की कृती कथा का वर्णन करते हुए कह दिया की वे अभी कन्नोज में ही है उनके साथ ग्यारह लाख योद्धाओं को मार गिराने वाले ग्यारह सौ सैनिक और सामंत भी है.इतना सुनते ही जयचंद ने कवी चन्द्र को विदा किया और मंत्री सुमंत को अपनी सेना को तयार करने का आदेश दे दिया जयचंद के सैनिकों ने तुरंत ही पृथ्वीराज के निवास स्थल को घेरने के लिए चल पड़ी जैसे ही ये बात पृथ्वीराज के एक सामंत लाखिराय को मिली वो तुरंत ही उनसे युद्ध करने के लिए अग्रसर हो गए. उन्होंने बहुत ही वीरता से युद्ध किया इस युद्ध में पृथ्वीराज का सामंत लाखिराय मारा गया और जयचंद का मंत्री सुमंत और सह्समल समेत कई सामंत भी मारा गया. भांजे और अपने राजमंत्री की मौत और हार का समाचार सुनकर जयचंद और भी क्रोधित हो उठा और अपने हिन्दू और मुसलमान सेना को आक्रमण करने का आदेश भी दे दिया, और साथ ही वो स्वयं भी युद्ध क्षेत्र में जा पहुंचा. युद्ध आरम्भ हो गया, इसबार पृथ्वीराज ने अपने सेना का भार पंगुराय को देकर स्वयं पृथ्वीराज ने संयोगिता को लाने के लिए चले गए. पृथ्वीराज के सामंत ने उन्हें अकेले जाने से रोका पर पृथ्वीराज उनका कहना न मानकर घोड़े में बठकर अकेले ही कन्नोज जा पहुंचे. पृथ्वीराज तो उधर चले गए और इधर दिल्ली में शत्रु सेना चन्द्र के निवास स्थल तक जा पहुंची.जयचंद्र दिल्ली में अपनी सेना का प्रबंध कर लौट आया. जयचंद की सेना ने चौहान सेना को चारों ओर से घेर लिया बहुत ही भयानक युद्ध होने लगा. जयचंद्र के लगभग दो हज़ार योद्धा मारे गए, पृथ्वीराज के भी कई सामंत और सैनिक मारे गए. पृथ्वीराज घुमते फिरते ठीक उसी स्थान में जा पहुंचे जहाँ संयोगिता थी. महल की दासियाँ झांक झांक कर पृथ्वीराज को देखने लगी. अब वे गंगातट में बैठ कर मछलियों का तमाशा देखने लगे. संयोगिता अपने सहेलियों के साथ पहले से ही पृथ्वीराज को गंगातट में बैठे हुए देख रही थी. संयोगिता पृथ्वीराज को पहचानती नहीं थी. संयोगिता पृथ्वीराज का कामदेव सा रूप देखकर अपने सुध बुध भूल चुकी थी. उनमे से कुछ सहेलियों ने उन्हें बताया की लगता है यही महाराज पृथ्वीराज चौहान है, क्या उनका परिचय पुछा जाए. संयोगिता ने कहा की मेरा भी मन यही कहता है की यही मेरे प्राणेश्वर पृथ्वीराज है, मेरी हाल तो सांप-छुछुंदर सी हो गयी है इधर जब मैं अपने माता पिता को देखती हूँ तो उनके प्रति वेदना उत्पन्न हो जाती है और जब पृथ्वीराज के बारे में सोचती हूँ तो उनसे मिलने की इच्छा होती है. इसी बीच पृथ्वीराज के घोड़े के गले की माला की एक मोती टूटकर गंगा में लुडकता हुआ जा गिरा.मछलियाँ उसे खाने का पदार्थ समझ कर एक दुसरे को हटाती हुई उस मोती की ओर लपक पड़ी और उसे खाने का प्रयत्न करने लगी.इसे देखकर पृथ्वीराज ने उस माला के सभी मोती को गंगा में एक एक कर डालने लगे, संयोगिता भी ये सारी चीजें देख रही थी, उसने अब अपनी दासी को पृथ्वीराज के पास एक मोतियों से भरा थाल देकर भेज दिया, और वो दासी ठीक पृथ्वीराज के पीछे खड़ी हो गयी, अब वो दासी पृथ्वीराज को मुट्टी भर भर के मोतियाँ देने लगी और पृथ्वीराज मछलियों में खोय सभी मोतियाँ गंगा में डालते चले गए, जब सारे मोती ख़तम हो गए तब दासी ने अपने गले का हार खोलकर पृथ्वीराज को दे दिया हाथ में हार देखकर पृथ्वीराज चोंक गये, जब उन्होंने पीछे मुड़ा तो उन्होंने एक स्त्री को देखा और फिर पृथ्वीराज उससे पूछने लगे की तू कौन है? तब दासी ने अपना परिचय देते हुए कहा की मैं महाराज जयचंद की राजकुमारी संयोगिता की दासी हूँ, पृथ्वीराज ने भी अपना परिचय दे दिया, इतना सुनते ही उस दासी ने पृथ्वीराज को संयोगिता के तरफ इशारा कर दिया, संयोगिता उस समय खिड़की से पृथ्वीराज को ही देख रही थी,संयोगिता को देखते ही पृथ्वीराज की बहुत ही विचित्र दशा हो गयी. दासी ने भी संयोगिता को इशारे में सारी बातें बता दी. संयोगिता ने सभी से सलाहकार पृथ्वीराज को महल में बुला लिया और यहीं पर उन्होंने गंधर्व विवाह किया. अब वहां से घर जाने का समय हो गया था क्योंकि उन्हें मालूम था की उनके सामंत अभी भी युद्ध कर रहे थे, घर जाने के नाम से ही संयोगिता व्याकुल हो उठी और विलाप करने लगी, उनकी दशा बहुत ही दींन हो गयी.पृथ्वीराज भी बहुत व्याकुल हो उठे पर उन्हें वहां ठहरना उचित न लगा,इतने में ही गुरुराम पृथ्वीराज को सामने से आते हुए दिखाई दिए, इन्हें देखकर पृथ्वीराज के जी में जी आया, गुरुराम को पृथ्वीराज की तलाश में भेजा गया था. गुरुराम ने पृथ्वीराज को कहा की अआप तो यहाँ श्रींगाररस में डूबे हुए है परन्तु क्या आपको पता है की लक्खिराय,इंदरमन,कुरंग, दुर्जनराय, सलाख सिंह,भीम राय, और न जाने कितने ही सामंत मारे जा चुके है, इतना कहकर उन्होंने कान्हा को दिया पत्र उनके हाथों में थमा दिया, पत्र पढ़कर पृथ्वीराज वहां से चल दिए. पृथ्वीराज को रस्ते में ही जयचंद की सेना ने घेर लिया. इस स्थान में पृथ्वीराज ने वीरता दिखाते हुए बखूबी उतने सारे सैनिकों का मुकाबला किया, गुरुराम ब्राह्मण होते हुए भी तलवार निकाल कर युद्ध में कूद पड़े, वे दोनों लड़ते लड़ते कान्हा के पास जा मिले. कान्हा से मिलते ही पृथ्वीराज ने सारी कहानी कान्हा से जा कहे, इस पर कान्हा ने कहा ये क्या महाराज, ये आप क्या कर आये, ये काम तो आप बहुत ही अनुचित किया,दुल्हिन को वहीँ छोड़ आये, या तो आपका उनका हाथ ही नहीं पकड़ना था, और अगर पकड़ लिया था तो छोड़ कर न आना था.पृथ्वीराज कान्हा की बात मान कर फिर लौट आये.साथ में वीरवर गोयन्दराय भी थे. पृथ्वीराज महल में जाकर संयोगिता को लेकर फिर अपने स्थान की ओर बढ़े. ये समाचार सारे कन्नोज में जंगल की आग की तरह तुरंत ही फ़ैल गयी की पृथ्वीराज संयोगिता को लिए जा रहे रहे है.जयचंद की सेना पृथ्वीराज को पकड़ने के लिए दौड़ पड़ी. इससमय कन्नोज राज्य में जयचंद का रावण नामक एक सरदार था, उसने जयचंद के आदेशानुसार सारे कन्नोज में ये बात फैला दी की पृथ्वीराज जहाँ मिल जाए उसे पकड़ कर मार दिया जाए. जयचंद ने पृथ्वीराज को पकड़ने के लिए अपनी समस्त सेना को जल्द से जल्द उपस्थित होने का आदेश दे दिया. उसकी तय्यारी देखते ही सारे कन्नोज वाशी कहने लगे थे की आज पृथ्वीराज का जिन्दा कन्नोज से निकल जाना असंभव है. राह में ही जयचंद की सेना का सामना पृथ्वीराज से फिर से हो गया. जयचंद की सेना को देखकर गोयन्दराय ने इस समय अतुल्य प्रकारम दिखाया, उसने दोनों हाथों में तलवार लेकर जयचंद की सेना में इस तरह टूट पड़ा और उन्हें काटने लगा की जैसे कोई गाजर मूली काटता हो, गोयन्दराय ने अकेले ही शत्रु की सेना में हलचल मचा दी, उसने जयचंद के कई सैनिकों को अकेले ही मार गिराया,अंत में गोयन्दराय इस वीरता के बावजूद वीरगति को प्राप्त किया, पृथ्वीराज ने संयोगिता को एक किनारे में कर खुद भी युद्ध में उतर गए और वीरता के साथ लड़ने लगे,पृथ्वीराज के अलाव पंज्जूराय,केहरीराय, कएंथिर परमार,पिपराय,आदि भी युद्ध में पराकर्म दिखने लगे. पंज्जुराय भी मारा गया, लेकिन मरने से पहले उसने जयचंद की मुसलमान सेना को बहुत हानि पहुँचाया.अब पुयांदिर कान्हा के साथ युद्ध भूमि में आकर पृथ्वीराज की मदद करने लगा, एक एक कर पृथ्वीराज के कई सामंत मरने लगे, पुयांदीर ने भी शाम तक युद्ध किया और वीरगति को प्राप्त किये. रात हो चुकी थी लेकिन आज युद्ध थमने का नाम नहीं ले रही थी. अब कान्हा ने अपना बहुत ही परक्रम दिखाया. आज के युद्ध में कान्हा ने जैसा प्रक्रम दिखाया है उसे देखकर चंदरबरदाई ने बहुत ही ज्वलंत भाषा में लिखा है की कान्हा की तलवार का घाव खाकर मेघ के सामान शरीर वाले हाथी और शत्रु के सेना मेघ के सामान ही गरज उठते थे. धीरे धीरे रात गहरी हुई और युद्ध थम गया, सब सामंतों ने संयोगिता समेत पृथ्वीराज को बीच में किया और बैठकर धीरे धीरे ये विचारने लगे की आगे क्या करना है.सभी सामंतों ने चंदरबरदाई को दोष देने लगे की इसी के सच बोलने के गुण के कारण हम पर इतनी बड़ी विपदा आई है. पृथ्वीराज ने सबको समझाया. इस समय सभी सामंतों की लाश को एक जगह एकत्र किया जाने लगा, पृथ्वीराज उन्हें देखकर अपने आप को रोक नहीं पाए और और जिस जगह में लाश रखी थी उस जगह जाकर उनसे लिपट लिपट कर रोने लगे और अपना माथा पटकने लगे. पृथ्वीराज की दुर्गति देखकर सारा माहोल शोक में डूब गया, पृथ्वीराज का रो रो कर जब बहुत ही बुरा हाल हो गया तब चन्द्रबरदाई ने उन्हें समझाने को कोशिश की कि जो होना था वो तो हो गया अब आगे के लिए क्या विचार है.सभी सामंतों ने ये विचार किया की अभी जैसे बन पड़े महाराज को बेदाग़ दिल्ली पहुंचा देना चाहिए,इसके बाद हम दुश्मन के सेना को समझ लेंगे अगर हम सबको भी वीरगति को प्राप्त करना पड़े तो कोई बात नहीं सीधे स्वर्ग पहुंचेंगे. अब सामंत उन्हें समझाने लगे की आप संयोगिता को लेकर रात्रि के अँधेरे में निकल जाए, सभी सामंत पृथ्वीराज को समझा कर थक गए पर वो एक न माने, उनके सामंत जितना समझाते वो उतना ही उनपर बिगड़ते. उनकी ये हालत देखकर सभी सामंत बहुत दुखी हुए. सुबह होते ही पृथ्वीराज घोड़े पर सवार हुए संयोगिता उनके पीछे जा बैठी,सारे सिपाहीगण और सामंत उन्हें चारूं ओर से घेरे हुए दिल्ली की ओर अग्रसर हुए,इधर कन्नोज की सेना उनको राह में गिरफ्तार करने के लिए बहुत ही वेग से बढ़ी. कन्नोज सेना पृथ्वीराज को पकड़ना चाहती और सभी सामंतगण उनकी रक्षा किये जा रहे थे. पृथ्वीराज की सेना एक घेरा बनाये हुए दिल्ली की ओर चली जा रही थी, जयचंद की सेना बराबर उनके पीछा करती जा रही थी, इस तरह से युद्ध करते करते कान्हा भी वीरगति को प्राप्त किया. इस युद्ध में पृथ्वीराज के चौसठ सामंत वीरगति को प्राप्त किये. और बहुत ही कठिनता से दिल्ली पहुँच गए. इसप्रकार से पृथ्वीराज अपने राज्य की इतने मजबूत स्तंभों को गंवाकर संयोगिता का हरण किया.
संयोगिता हरण
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