अब प्रताप ने उदयपुर से 57 मील की दुरी पर स्थित चावंड में अपनी राजधानी स्थापित कर ली.1583 के बाद महाराणा का केंद्र स्थल चावंड नगर बन गया. अकबर जब सारे प्रयत्न कर के हार गया और उसे राणा प्रताप को काबू में करने का कोई रास्ता नजर नहीं आया तो वह बुरी तरह से बौखला गया. उसने मानसिंह को एकांत में बुलाया और स्थिति की गंभीरता पर विचार किया. मानसिंह ने अकबर को सूचित किया की राजपूत महाराणा पर बार बार आक्रमण करने की निति से प्रसन्न नहीं है. महाराणा ने बेमिसाल बहादुरी का परिचय देकर मुग़ल शक्ति को हर बार नाकामयाब कर दिया है. ऐसे बहादुर व्यक्ति की तबाही से राजपूत क्षुब्ध है. स्वयं मानसिंह ने राणा प्रताप पर और अधिक आक्रमण ना करने की निति से सहमती जताई. अकबर समझ गया था की यदि राणा पर और अधिक हमले किये गए तो राजपूत बगावत पर उतर जायेंगे और जिस मंतव्य से राणा शेर की तरह डटा हुआ युद्धों की विभीषिका को झेलता रहा है उसमे वह कामयाब हो जायेगा. एक बार राजपूत उसके हाथ से निकल राणा प्रताप के साथ हो गए, तब सम्पूर्ण मुग़ल सल्तनत ही खतरे में पड़ सकता है. अगले ही दिन उसने एक महत्वपूर्ण घोषणाएं कर डाली, घोषणा यह थी की महाराणा प्रताप से मुग़ल सम्राट की अब कोई दुश्मनी नहीं है, जब तक प्रताप जीवित है उनपर मुगलों की ओर से कोई और हमला नहीं किया जायेगा. अकबर ने सभी राजपूत से अपने गलतियों के लिए क्षमा याचना की, राजपूतों को और क्या चाहिए था, मुग़ल सम्राट अकबर उनसे क्षमा मांग रहा है इससे प्रतिष्ठा वाली बात और क्या हो सकती है. मुग़ल साम्राज्य से कटकर महाराणा के पीछे एक जुट होने का जो संकल्प उनके मन में जागा था,वो एक कच्चे घड़े की तरह टूट गया था. महाराणा प्रताप को जब ये पता लगा की अकबर उनसे संघर्ष का रास्ता छोड़ दिया है तो उन्हें बड़ी निराशा हुई. वे उस मिटटी के बने राजपूत थे, जो शत्रु द्वारा उदारता दिखाए जाने पर कभी प्रसन्न नहीं होते थे. फिर अकबर से उनकी शत्रुता तो कई पीढियां पुरानी थी. मुगलों से संघर्ष करना उनकी जीवन शैली में शामिल हो गया था. सम्पूर्ण युद्ध विराम के समाचार से उन्हें ऐसा लगा की जैसे सारे काम एकाएक रुक गए हो. वास्तविकता तो ये थी की 25 वर्षो से निरंतर युद्ध करते करते उनका शारीर जर्जर हो चूका था उन्हें आराम की सख्त जरुरत थी. परन्तु राणा प्रताप ने अपने सुख चैन और आराम को कभी भी महत्त्व नहीं दिया. उनकी एकमात्र चिंता बस यही थी की देश के राजपूतों में एक ऐसा जूनून पैदा हो की वे एक होना सीखे और बहरी ताकतों के हाथों में न खेलकर अपनी ताकतों को पहचाने और अपने देश में अपने संयुक्त साम्राज्य की स्थापना के लिए कुछ करें.
राणा बीमार पड़ गए उनके मन में एक ही चिंता घर कर गयी थी की उनके बाद मातृभूमि के लिए लड़ने वाले राजपूतों की परम्परा समाप्त हो जाएगी. मेवाड़ का भविष्य भी उनको उज्जवल नहीं दिख रहा था. उन्हें भय था की उनके बाद अमर सिंह मुगलों का दयित्व स्वीकार कर लेगा. जिस प्रतिष्ठा के लिए वे आजीवन हर तरह के कष्ट सहते हुए शत्रुओं से जूझते रहे, उनकी मृत्यु के बाद वह धुल में मिल जाएगी. राणा प्रताप से मिलने प्रतिदिन अनेक लोग आते थे. राणा बीमार है और मृत्यु की शय्या पर है ऐसी खबर दूर दूर तक फ़ैल गयी थी. अनेक राजपूत राजा उनका हाल चाल जानने और उनके दर्शन के लिए आने लगे थे. राजपूत ही नहीं अनेक बहादुर मुसलमान और मुस्लिम सरदार भी राणा के दर्शन करने में अपना अहोभाग्य समझते थे.
अब तो अंतिम दिन निकट आ पहुंचा था. महाराणा की दशा बिगड़ गयी थी. उन्होंने अपने विश्वस्त साथियों गोविन्दसिंह,पृथ्वीराज, शक्तिसिंह अमरसिंह आदि को बुलाया और कहने लगे-“अब मुझे केवल एक बात बताओ मेरे बाद इस मातृभूमि की लड़ाई कौन लडेगा आप सब थक चुके है और अमरसिंह इस काबिल नहीं लगता है. “आप शांत रहिये भैया” शक्तिसिंह ने आगे बढ़कर कहा-“जब तक हम चितौड़ का किला जीत नहीं लेते है, मुगलों से कोई समझौता नहीं करेंगे. हम मुगलों के आगे कभी नहीं झुकेंगे, आपके द्वारा स्थापित वीरता की परंपरा को धक्का नहीं लगने देंगे, चाहे हमारे प्राण ही क्यों ना चले जाए.” बाबा रावत को साक्षी मानकर सभी राजपूतों ने प्रतिज्ञा की. राणा आश्वस्त हो गए और बोले-“मुझे आप लोगो पर पूरा भरोसा है अब मैं चैन से मर सकूँगा”.कहते हुए महाराणा ने शून्य में देखा और फिर गर्दन झुकाकर कहने लगे –“मेरा अंत समय निकट आ गया है. प्राण के निकलते समय मैं चित्तौडगढ के दर्शन करना चाहूँगा आप सब मुझे ऐसी जगह लिटा दीजिये जहाँ से मैं चितौड़गढ़ का किला स्पष्ट रूप से देख सकूँ. चितौड़गढ़ का किला जब राणा जी को दिखने लगा तो वो उठ बैठे और बोले –“हे मुग़ल पददलित चितौडगढ़ मैं तुझे अपने जीवन में प्राप्त ना कर सका. अकबर ने उसपर अन्याय से कब्ज़ा कर रखा है, मैं तुझे जीते बिना ही जा रहा हूँ, परन्तु विश्वास रख मेवाड़ की युवा पीढ़ी तुझे शीघ्र ही मुक्त करा लेगी. मैंने प्राण पण से तेरे उद्धार की कोशिश की थी मगर……”कहते कहते महाराणा का गला रुंध गया, दृष्टी किले के बुर्ज पर ही ठहर गयी थी. तभी वैद्य ने उनकी नाड़ी देखी और बोले- “महाराणा की इहलीला समाप्त हो गयी”.
यह शब्द सुनते ही अमरसिंह, गोविन्दसिंह, शक्तिसिंह आदि राणा के गले से लिपटकर फूट फूट कर रोने लगे. मेवाड़ के जाज्वल्यमान सूर्य का अन्त हो गया. पूरा मेवाड़ शोक में डूब गया.
———————————————————–समाप्त—————————————————–
राणा बीमार पड़ गए उनके मन में एक ही चिंता घर कर गयी थी की उनके बाद मातृभूमि के लिए लड़ने वाले राजपूतों की परम्परा समाप्त हो जाएगी. मेवाड़ का भविष्य भी उनको उज्जवल नहीं दिख रहा था. उन्हें भय था की उनके बाद अमर सिंह मुगलों का दयित्व स्वीकार कर लेगा. जिस प्रतिष्ठा के लिए वे आजीवन हर तरह के कष्ट सहते हुए शत्रुओं से जूझते रहे, उनकी मृत्यु के बाद वह धुल में मिल जाएगी. राणा प्रताप से मिलने प्रतिदिन अनेक लोग आते थे. राणा बीमार है और मृत्यु की शय्या पर है ऐसी खबर दूर दूर तक फ़ैल गयी थी. अनेक राजपूत राजा उनका हाल चाल जानने और उनके दर्शन के लिए आने लगे थे. राजपूत ही नहीं अनेक बहादुर मुसलमान और मुस्लिम सरदार भी राणा के दर्शन करने में अपना अहोभाग्य समझते थे.
अब तो अंतिम दिन निकट आ पहुंचा था. महाराणा की दशा बिगड़ गयी थी. उन्होंने अपने विश्वस्त साथियों गोविन्दसिंह,पृथ्वीराज, शक्तिसिंह अमरसिंह आदि को बुलाया और कहने लगे-“अब मुझे केवल एक बात बताओ मेरे बाद इस मातृभूमि की लड़ाई कौन लडेगा आप सब थक चुके है और अमरसिंह इस काबिल नहीं लगता है. “आप शांत रहिये भैया” शक्तिसिंह ने आगे बढ़कर कहा-“जब तक हम चितौड़ का किला जीत नहीं लेते है, मुगलों से कोई समझौता नहीं करेंगे. हम मुगलों के आगे कभी नहीं झुकेंगे, आपके द्वारा स्थापित वीरता की परंपरा को धक्का नहीं लगने देंगे, चाहे हमारे प्राण ही क्यों ना चले जाए.” बाबा रावत को साक्षी मानकर सभी राजपूतों ने प्रतिज्ञा की. राणा आश्वस्त हो गए और बोले-“मुझे आप लोगो पर पूरा भरोसा है अब मैं चैन से मर सकूँगा”.कहते हुए महाराणा ने शून्य में देखा और फिर गर्दन झुकाकर कहने लगे –“मेरा अंत समय निकट आ गया है. प्राण के निकलते समय मैं चित्तौडगढ के दर्शन करना चाहूँगा आप सब मुझे ऐसी जगह लिटा दीजिये जहाँ से मैं चितौड़गढ़ का किला स्पष्ट रूप से देख सकूँ. चितौड़गढ़ का किला जब राणा जी को दिखने लगा तो वो उठ बैठे और बोले –“हे मुग़ल पददलित चितौडगढ़ मैं तुझे अपने जीवन में प्राप्त ना कर सका. अकबर ने उसपर अन्याय से कब्ज़ा कर रखा है, मैं तुझे जीते बिना ही जा रहा हूँ, परन्तु विश्वास रख मेवाड़ की युवा पीढ़ी तुझे शीघ्र ही मुक्त करा लेगी. मैंने प्राण पण से तेरे उद्धार की कोशिश की थी मगर……”कहते कहते महाराणा का गला रुंध गया, दृष्टी किले के बुर्ज पर ही ठहर गयी थी. तभी वैद्य ने उनकी नाड़ी देखी और बोले- “महाराणा की इहलीला समाप्त हो गयी”.
यह शब्द सुनते ही अमरसिंह, गोविन्दसिंह, शक्तिसिंह आदि राणा के गले से लिपटकर फूट फूट कर रोने लगे. मेवाड़ के जाज्वल्यमान सूर्य का अन्त हो गया. पूरा मेवाड़ शोक में डूब गया.
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