शक्तिसिंह प्रकरण

प्रताप के महाराणा बनते ही कई राजपूत वीरों का खून उबलने लगा था और वो आकर महाराणा प्रताप से मिलने लगे थे. वो सभी शत्रु से दो दो हाथ करने के लिए मचलने लगे थे जिसने उन्हें परतंत्रता ककी जंजीर में बंधा था, परन्तु उस समय उनका शत्रु दिल्ली का बादशाह जल्लालुद्दीन अकबर था जिसके पास सागर सा विशाल सेना थी और जिसने चितौडगढ़ में लगातार 6 महीने तक राजपूतों से युद्ध कर चितौडगढ़ जीता था. कई राजपूत वीर अपने भाला, तलवार और तीर कमान लेकर जंगल की ओर युद्ध का अभ्यास करने चल पड़े. वो अपने हथियार को धार और युद्ध अभ्यास करने को उतावले थे, उन्होंने जंगल को अपना युद्धाभ्यास का क्षेत्र बना लिया था. इन्ही दिनों राणा प्रताप भी युद्धाभ्यास के लिए जंगल जाया करते थे.
एक दिन वो अपने छोटे भाई शक्ति सिंह के साथ वराहों का शिकार करने के लिए जंगल गए, जैसे ही उन्हें वराह दिखा दोनों भाइयों ने उस वराह में एक साथ अपना भाला फेंक दिया, परन्तु एक भाला वराह को लगा और वराह वहीँ मर गया. दोनों भाई वराह का पीछा करते हुए वहां पहुंचे. वराह को मृत देख शक्ति सिंह ने कहा की देखा भैया मेरा निशाना कितना अचूक है मेरे एक वार से यह वराह धराशयी हो गया , राणा प्रताप को यह बात अच्छी नहीं लगी , उन्हें अच्छी तरह से ज्ञात था की यह भाला उनका है, वे बोले नहीं शक्ति ये तुम्हारा भाला नहीं ये मेरा भाला है. इस पर शक्ति सिंह बौखला गया, और फिर कहा “आपका कहने का तो यही अर्थ हुआ न की मैं झूठ बोल रहा हूँ, मैं आपको झूठा नजर आ रहा हूँ, मैं किसी भी तरह से श्रेष्टता में आपसे कम न हूँ, मैं एक राजपूत हूँ और एक राजपूत कभी भी झूठ सहन नहीं कर सकता है. आप मेवाड़ के राजा अवश्य होंगे परन्तु मैं झूठ नहीं सहन कर सकता हूँ. इस पर राणा प्रताप ने कहा की “मेरा ये अर्थ नहीं था शक्ति, मैं तो बस तुम्हे सत्य का बोध करा रहा था,” और कई तरह से समझाने की कोशीश करते हुए मुस्कुराने की कोशिश किये. शक्ति सिंह ने कहा की “सत्य असत्य का बोध आप न कराये मुझे मुझे अच्छी तरह से पता है सत्य क्या है, ये शिकार मेरा है और मैं इसे लेकर रहूँगा, मैं जगमाल नहीं हूँ जो आसानी से अपना हक़ छोड़ दूँ” इतना कहकर शक्ति सिंह ने अपने अनुचरों से कहा की आनुचारों उठा इस शिकार को, इसपर राणा प्रताप गरजे शक्ति सिंह तुम अपनी हद पार कर रहे हो, तुमने मेरा ही नहीं मेवाड़ के महाराणा का भी अपमान किया है, नादे भाई के रूप में मैं तुम्हे क्षमा कर भी दूं, पर मेवाड़ के महाराणा का अपमान नहीं सहा जायेगा. शक्ति सिंह ने कहा की मैं एक राजपूत हूँ, और आपको मेरा ताकत का अंदाजा नहीं है इतना कहकर उसने एक भाला उठाया और पूरी शक्ति से एक शिला में फ़ेंक दिया, भाला शिला से टकराते ही क्षण भर में चूर चूर हो गया,और फिर कहा तो फिर ठीक है, एक राजपूत योद्धा के भांति निकालिए अपना तलवार और सामना कीजिये इस राजपूत का, राणा प्रताप ने फिर समझाने की कोशिश की कि लगता है तुम अपने ताकत की घमंड में अपनी मर्यादा भूल गया हो, शक्ति सिंह अपने आप को सम्भालों. शक्ति सिंह कायर नहीं है, और आप अपनी तलवार निकालो और सामना करो जो जीवित बचेगा वही विजयी होगा, सारे अनुचर उन दोनों भाइयों को देख रहे थे और थर थर काँप रहे थे, यदि आज प्रताप चुप रह जाते तो ये मेवाड़ के महाराणा की शान के विरुद्ध होता, और सारी मेवाड़ में प्रताप की किरकिरी हो जाती, इस ललकार को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता था, इसलिए राणा प्रताप ने अपनी तलवार निकाल लिया, इतना देखते ही उनके सैनिक बीच में आ गए और होने वाले युद्ध को रोकना चाहा पर शक्ति सिंह उस समय इस तरह पागल हो चूका था की वो तलवार लिए अपने सैनिकों की तरफ ही लपक पड़ा, सभी सैनिक अपनी जान बचा कर वहां से भाग गए, फिर उसने राणा प्रताप पर पहला वार किया, और राणा प्रताप ने भी अपना बचाव किया, दोनों योद्धा तलवार बाजी में निपूर्ण थे, इसलिए थोड़ी ही देर में उन दोनों के बीच होने वाली लड़ाई युद्ध में बदल गयी, तलवार की झंकार से सारा माहोल थर्रा उठा था, और कोई भी उनके पास जाने की हिम्मत नहीं कर रहा था, दोनों भाई एक दुसरे के खून के प्यासे लगने लगे थे. युद्ध की आवाज सुनकर उनके गुरु राघवेन्द्र वहां पहुँच गए, और वो उन दोनों को इस तरह युद्ध करता नहीं देख पाए, उन्होंने कई बार उन दोनों से युद्ध न करने की प्रार्थना की पर किसी ने भी उनकी बात को न सुना, फिर युद्ध को रोकने की प्रार्थना करते हुए वे उन दोनों के बिलकुल समीप आ पहुंचे, इतने में ही शक्ति सिंह ने प्रताप पर एक ऐसा वार किया की प्रताप तो किसी तरह उस वार से बच गए परन्तु वो वार सीधा गुरुवर राघवेन्द्र को लगा, गुरु वहीँ पर अपने प्राण त्याग दिए, दोनों गुरुवर को इस प्रकार गिरता दिख आहात हो गये, उन्होंने अपने क्रोध को भूल कर गुरुवर की तरफ देखे, गुरु की मृत शरीर को देख प्रताप जोर जोर से वहीँ रोने लगे और अपनी गलती की क्षमा मांगने लगे, उन्होंने अपने गुरु की सिर को अपने जांघों में रखा और अपनी पश्चताप करने लगे, शक्ति सिंह वही खड़ा सब देख रहा था, उसने जैसे ही गुरु की तरफ आगे बढ़ा राणा प्रताप ने उसे रोक लिया और क्रोद्ध भरे नज़रों से शक्ति सिंह को देखा. राणा प्रताप उस समय बहुत ज्यादा क्रोद्धित हो चुके थे, इस लिये उन्होंने शक्ति सिंह को उसी समय राज्य से निर्वासन का आदेश दे दिया, शक्ति सिंह अपने निर्वासन के आदेश को सहन नही कर सका और उसी समय मेवाड़ को छोड़ दिया. इधर राणा प्रताप ने पुरे सम्मान के साथ अपने गुरुवर का अंतिम संस्कार किया.
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