सोमेश्वर राज चौहान के पृथ्वीराज चौहान के अतिरिक्त पृथा नाम की एक कन्या थी। जब पृथा कुमारी विवाह के योग्य हुई तब उसका विवाह चितोड़ के अधिपति वीरबल रावल समरसिंह के साथ निश्चित हुआ। वास्तव में समर सिंह एक विचित्र प्रतिभा पूर्ण पुरुष थे, चितोड़ के मनानिये सिंहासन में बैठने के बाद भी वे सदा तपस्वी के भेष में रहते थे। महाकवि चन्द्र ने अपने रासो नामक ग्रन्थ में स्थान स्थान पर उनकी प्रशंसा की है उनके विषय में लिखा है की वे साहसी, धीरस्वाभाव और युद्ध कुशल होने के साथ साथ धर्म्प्रिये, सत्याप्रिये, और सदा शुद्ध चरित्र के थे। वे मिष्ट भाषी,और कभी किसी से कठोर व्यवहार नहीं करते थे, समर सिंह के इन्ही गुणों के कारण गोहिलोत और चौहान जाती के समस्त सैनिक और सामंत उनसे अत्यंत श्रद्धा भक्ति का भाव रखते थे। चन्द्रबरदाई ने अपने मुख से ही ये बात स्वीकार किया है की इस महाकाव्य में जो भी शाषण निति है उसका अधिक अंश महाराज समर सिंह के उपदेशों पर आधारित है। जिस समय पृथा कुमारी के विवाह के लिए दूत के साथ साथ ही कान्हा चौहान, तथा पुरोहित गुरुराम भी वहां पहुंचे थे, उस समय समर सिंह एक व्यार्घ चर्म पर विराज कर रहे थे, उनका शांत स्वाभाव तथा वीर पुर्ण तेजोमय देखकर गुरुराम ने प्रित का विवाह स्थिर किया और समर सिंह ने भी विवाह को सादर स्वीकार कर गुरुराम को बहुत कुछ देना चाहा, पर गुरुराम ने कुछ भी नहीं लिया, समर सिंह और पृथा ने जो विवाह के बंधन में बंधा वो तो बंधा ही इधर चौहान जाती से उनका स्नेह और ही बढ़ गया, समर सिंह के निति बल, आचार बल, चरित्र बल और समर बल ने चौहान की शक्ति को और ही बढ़ा दिया इसे देखकर शत्रुओं की छाती दहल उठी और तब से पृथ्वीराज चौहान और समर सिंह दोनों हर विशाल युद्ध में एक साथ नजर आने लगे, दोनों वीरों ने एक साथ मिलकर शत्रुओं का संहार करने लगे। और पृथ्वीराज चौहान को एक और बड़ा सा सहारा मिल गया था।
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