मान सिंह ने दिल्ली पहुँच कर कर सम्राट अकबर को राणा प्रताप द्वारा किये गए अपमान की कहानी सुनाई. इसे सुनकर अकबर को बहुत प्रसन्नता हुई. परन्तु अकबर ने अपनी प्रसन्नता को प्रकट नहीं होने दी. वह गंभीर मुद्रा में बोला-“तुम्हारा अपमान मेरा अपमान है मानसिंह, परन्तु मैं खून खराबा से बचना चाहता हूँ.खासकर राजपूत का, राजपूत से टकराना मुझे अच्छा नहीं लगता है. राणा प्रताप राजपूत अवश्य है जह्पनाह परन्तु अहंकार ने उसकी बुद्धि भ्रष्ट कर दी है . उसे अपनी वीरता पर बहुत घमंड है. मैंने कसम खाई है की उसका घमंड चूर चूर कर अपने अपमान का बदला लूँगा. अकबर एक क्षण चुप रहा, फिर बोला-“लेकिन मानसिंह तुम तो प्रताप की बड़ी प्रशंसा किया करते थे. तुम तो उसे परम विवेकी और सुलझा हुआ शासक समझते थे. जब जब मैने मेवाड़ को अपने राज्य में मिलाने की बात कही तुमने सदा उसका विरोध किया है. तुम्हारी ही बदौलत अबतक प्रताप चैन से शासन करता रहा, मैं तो राजपूत को अब और ना छेड़ने का मन बना चूका था परन्तु तुम्हारा अपमान…..अकबर ने अपमान की पीड़ा में जलती मानसिंह की आँखों में देख कर बोला, अब तो तुम्हारे अपमान करने की सजा प्रताप को अवश्य मिलेगी, जाओ युद्ध की तैयारियां करो और मेवाड़ की ईट से ईट बजा दो. प्रताप को जीवित पकड़ कर मेरे सामने उपस्थित करो. यदि जीवित ना ला सको तो मुर्दा ही सही. पर उसे दिल्ली अवश्य लाना. अकबर को प्रणाम कर मानसिंह वहां से चला गया. अकबर सोचने लगा…यह राजपूत कौम भी बड़ी विचित्र है. सबसे अधिक लड़ाकू और देशभक्त राजपूत जरा सी बात पर एक दुसरे का खून के प्यासे बन जाते है…कल तक जो मान सिंह राणा प्रताप की प्रशंसा करते नहीं थकता था, आज राणा से अपमानित होकर उसके विनाश का सबब बन गया है. अब राणा प्रताप को धुल में मिलाने का सही अवसर है..मानसिंह की प्रतिशोध की भावना शक्तिसिंह के प्रतिशोध की भावना से मिल कर राणा प्रताप का विनाश अवश्य कर डालेगी. जो काम छ: महीने तक मैंने प्रताप से युद्ध लड़कर केवल चितौड़ के किले को ही जीत सका अब मानसिंह के कारण मैं पूरा मेवाड़ पर अधिकार करूँगा. अकबर ने तुरंत ही शक्ति सिंह को बुलाया. शक्ति सिंह प्रतिशोध की भावना में जल रहा था. उसने आते ही पुछा जहाँपनाह आप प्रताप सिंह से निबटने का मौका कब दे रहे है? अब मेरे सब्र का बाण टूटने लगा है. इस पर अकबर बोला- अब तुम्हे अधिक इन्तेजार की जरुरत नहीं है. शक्तिसिंह. प्रताप से बदला लेने का मौका तुम्हारे पास खुद ही चल के आ गया है. तुम्हारे मगरूर भाई ने मानसिंह का अपमान कर अपनी मौत का फरमान खुद जरी कर दिया है. शाही फ़ौज की तैयारी हो रही है देखे तुम्हारी तलवार कितनी गर्दन नापती है. आप मौका तो दीजिये जहापनाह शक्ति सिंह की बान्हे फड़कने लगी.-मैं अकेला ही शाही फ़ौज की विजय का इतिहास लिखूंगा..अवश्य शक्ति सिंह तुम इन मेवाड़वाशियों को बता दो की तुम्हारी शक्ति को ना पहचान कर कितनी बड़ी भूल की है. अपनी प्रसंसा सुनते ही शक्ति सिंह का मुह खुल गया. घर का भेदी शक्ति ने मुग़ल सम्राट अकबर को बता दिया की प्रताप के पास कुल मिलाकर 20-22 हजार सैनिक है इनमे जान पर खेलजाने वाले राजपूतों के अलावा एक बड़ी संख्या में भील भी है…भील एक जंगली जाती होती है, ये गजब के तीरंदाज होते है. वे एकाएक आक्रमण कर गुफाओं में चिप जाते है..और फिर वहां से अचानक निकल कर बिजली की तेज़ी से आक्रमण करते है.. इनसे निपटने के लिए एक विशेष प्रकार की रणनीति बनानी होगी. अकबर ने शक्ति सिंह का सारा भेद जानने के बाद सफल रणनीति तैयार करने के उद्देश्य से फौजी हाकिमो की बैठक बुलाई..इस बैठक का केंद्र शक्तिसिंह थे..फौजी हाकिम बड़ी ही सावधानी से शक्ति सिंह से सैनिक महत्त्व के सारे भेद उगलवा लिए.अब फौजी हाकिम अपनी जीत के प्रति और अधिक आश्वस्त हो गए. शाही फ़ौज की जीत सुनिश्चित होने लगी. परन्तु बहुत सोच विचार के बाद भी शाही फ़ौज के सेनापति के चयन की समस्या नहीं हल हो सकी. अकबर का मन था की सेना का पूरा दायित्व मानसिंह ही संभाले. मानसिंह पर अकबर का पूरा भरोसा था. मानसिंह अब तक कई शाही फ़ौज का सेनापतित्व कर चुका था. उसके नेतृत्व में सही फ़ौज ने कई युद्ध जीते भी थे. परन्तु संकट ये भी था की मान सिंह के सेनापति बनते ही बागी हो जाने का खतरा था. अकबर के कूटनीति के हिसाब से शक्तिसिंह के हौसले को कहीं से भी कम होने देना शाही फ़ौज की हवा निकलने जैसा था. अकबर ने बहुत ही विवेक से काम लिया और मानसिंह व् शक्तिसिंह को एक ही तुला में तोला और अपने पुत्र सलीम को सेनापतित्व का दायित्व सौंपा. राणा प्रताप को अपनी शक्ति और राजपूत के स्वाभिमान पर अटूट विश्वास था. वे जानते थे की अकबर से युद्ध करना सर्वनाश को आमंत्रण देना है, परन्तु वे ये भी जानते थे की अकबर के सामने स्वेच्छा से झुक जाना और उसकी अधीनता को स्वीकार कर लेना अपमानजनक ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए घातक है. यदि इसी तरह सभी शासक मुगलों के समक्ष बिना किसी प्रतिरोध के आत्मसमर्पण करते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब राजपूति संस्कृति ही नहीं वरन पूरी की पूरी हिन्दू संस्कृति ही मिट जाएगी. अत्याचार और अन्याय का विरोध ही वास्तव में मानव धर्म है. सच्चे राजपूत का धर्म है, जो पृथ्वी पर आया है, चाहे वो स्वयं हो अथवा अकबर, पर मनुष्य कहलाने का अधिकारी वही है जो अपने धर्म का निर्वाह करते हुए मृत्यु को प्राप्त करे. गुलामी के सौ वर्ष से ज्यादा प्रताप की आजादी का एक पल प्रिय था. गुलामी की चुपड़ी रोटी की जगह आजादी की घास की रोटी प्रताप को ज्यादा मीठी लगती थी. यही कारन था की तमाम दबाव के बावजूद प्रताप ने अकबर के विरुद्ध युद्ध करना ही श्रेष्ट समझा
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