Maharana Pratap · July 22, 2016 1,922

भामाशाह का योगदान और महाराणा का विजय अभियान

भामाशाह चितौड़ के बड़े धनपति थे. उनके पास अपार धन सम्पदा थी, मुगलों के आक्रमण के बाद उन्होंने चितौडगढ़ का त्याग कर दिया था. कई वर्षों तक उन्होंने मुगलों से अपनी धन संपत्ति को छुपाये रखा. वे कई दिनों से राणा प्रताप की तलाश में थे क्योंकि उन्हें पता था की राणा को युद्ध के लिए धन की आवश्यकता है. उनकी हार्दिक इच्छा थी की महाराणा उनका धन ले ले और एक मजबूत सेना का गठन कर मुगलों से अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराएँ. जब भामाशाह को राणा प्रताप का पता चला तो वो तुरंत अपना सब कुछ लेकर राणा प्रताप के पास जा पहुंचे, उन्होंने आग्रह किया की ये धन वो ले ले और एक सेना का संगठन कर मुगलों को मुंह तोड़ जवाब दे. भामाशाह का निवेदन को महाराणा प्रताप ने अति संकोच के साथ स्वीकार किया. यह राशी इतनी बड़ी थी की इससे 5000 हजार सैनिकों को 12 वर्षों तक वेतन दिया जा सकता था. इतनी बड़ी राशी का योगदान देकर भामाशाह इतिहास में अपना नाम अमर करवा गए. महाराणा प्रताप ने भी उनकी अपने मातृभूमि के लिए योगदान देने पर बहुत प्रसंशा किये. सबने भामाशाह का कृतज्ञता व्यक्त की सबके चेहरे प्रसन्नता से खिल उठे . शक्तिसिंह के हृदय में युद्धोन्माद लहरे लेने लगा. भामाशाह से धन लेने के बाद राणा प्रताप ने अपने सेना को संगठित किया. अनेक राजपूत राजाओं ने आगे बढ़कर राणा प्रताप का सहयोग दिया. शक्तिसिंह ने भी अपने द्वारा संगठित सैन्य शक्ति राणा प्रताप को दे दी. और अब वह राणा का वफादार सैनिक बन गया. राजा पृथ्वीराज ने अकबर से प्रतिशोद लेने के लिए अकबर का साथ छोड़ दिया और वे राणा प्रताप से आकर मिल गए. राणा प्रताप ने हमले कर मुगलों को कुमलमेर से खदेड़ दिया. पुरे कुमलमेर क्षेत्र में फिर से महाराणा ने कब्ज़ा कर लिया. मुग़ल सेना पहले ही राणा प्रताप के गुरिल्ले युद्ध से आतंकित थी. जहाँ जहाँ महाराणा ने दबाव बनाया वहां वहां मुग़ल सेना पीछे हटते चली गयी.
किनसहारा का किला अभी भी शक्तिसिंह के कब्जे में था. अकबर ने राजा मानसिंह को आदेश दे दिया की किनसहारा का किला को शक्तिसिंह से छीन लिया जाए.मानसिंह ने महाबत खान को बुलाकर उसे 10 हजार सैनिक दिए और शक्तिसिंह पर आक्रमण करने को कहा. महाबत खान ने किनसहारा किला पहुँच कर शक्तिसिंह को चुनौती दी उस समय शक्तिसिंह केवल 1 हज़ार सैनिको के साथ किले की रक्षा कर रहा था. महाबत खान ने किले की घेराबंदी कर दी और आशा कर रहा था की रसद खत्म होने पर शक्तिसिंह अपनी सेना लेकर किले से बाहर निकलेगा, तब उसे मार गिराया जायेगा. परन्तु शक्ति सिंह ने हार नहीं मानी. शक्तिसिंह ने तुरंत ही महाराणा प्रताप के पास खबर भिजवा दी. महाबत खान ने दुर्ग के पूर्व की दिवार तोड़ डाली और उसकी सेना किले में घुसने की तयारी करने लगी. शक्तिसिंह ने मुकाबला करते हुए मरने का फैसला कर लिया था. परन्तु ठीक उसी समय महाराणा प्रताप की जयजयकार शक्तिसिंह के कानो तक पहुंची, शक्तिसिंह बिना समय गंवाए आक्रमण का आदेश दे दिया. उसी समय प्रताप की सेना भी पिछे से पहुँच गई. दोनों सेनाओं ने मिल कर महाबत खान की सेना को घेर लिया. मुग़ल सेना दो पाटों के बीच फंस गयी. महबत खान को कैद हो गई. जब उसे महाराणा के सामने लाया गया तो उन्होंने महबत खान को छोड़ दिया. इस प्रकार से किनसहारा का किला बच गया. इस युद्ध में मुगलों के 10 हजार सैनिकों में से 8 हजार सैनिक मारे गए. राणा के विपुल युद्ध सामग्री हाथ लगी .
राणा प्रताप ने अपनी बहादुरी और जन सहयोग से अकबर द्वारा जीता गया लगभग सारा क्षेत्र फिर से जीत लिया. अपनी सेना को आधूनिक साज सामग्री से युक्तकर, महाराणा ने कुम्भलगढ़ को अपना केंद्र बना लिया.
अकबर ने अक्टूबर 15,1577 को शाहबाज खां के नेतृत्त्व में एक विशाल सेना कुम्भाल्गढ़ में आक्रमण के लिए भेजा. ऐसा माना जाता है की राजा मानसिंह और भाग्वान्तदास को इस युद्ध से दूर रखा गया था क्योंकि उनके मन में राणा प्रताप के लिए सहानुभूति थी. राजपूत के सिरमौर प्रताप को अधिक सताए जाने के कारन ये राजपूत अकबर के विरुद्ध होने लगे थे, परन्तु अकबर की आँखों में प्रताप चुभ रहे थे. अकबर का पक्का विश्वास था की प्रताप के रहते मुग़ल सल्तनत सुरक्षित नहीं था. प्रताप के नेतृत्व में वह जादू है की राजपूत कभी भी उसके पिछे खड़े हो सकते है. अतः वह बड़ी ही सावधानी से प्रताप को कमजोर करने में लगा था. कुम्भलगढ़ के युद्ध में प्रताप ने तोंपो का भी इस्तेमाल किया था. ऐसा उल्लेख मिलता है की शाहबाज खां हर कोशिश करके हार गया परन्तु प्रताप के तोंपो का जवाब नहीं दे पाया. हर संभव प्रयास के बाद भी वह किले पर कब्जा नहीं कर पाया. अंत में उसने एक चाल चली उसने प्रताप के तोंपो के बारूद में शक्कर मिला दी जिससे की तोंपो के टुकड़े टुकड़े हो गए. और मुग़ल सेन प्रताप के सेना में हावी हो गयी. एक बार फिर प्रताप को करारी हार का मुंह देखना पड़ा. राणा प्रताप किला छोड़ कर,परशुराम महादेव के मार्ग से रणकपुर चले गए और वहां से चावंड जा पहुंचे. प्रताप के सुरक्षित पहुँचने तक राजपूतों ने किला का दरवाजा नहीं खोला और फिर फाटक खोल दिया. फाटक के खुलते ही मुग़ल सेना किले में प्रवेश कर गयी..बचे हुए राजपूत मुग़ल से भीड़ गए..एक एक राजपूत कई कई मुगलों को मारकर वीरगति को प्राप्त किया. अप्रैल 1578 को कुम्भलगढ़ का दुर्ग शाहबाज खां ने जीत लिया. किला जीतकर शाहबाज खां ने उसे गाजी खां को दे दिया और स्वयं उसने कई मोर्चे बनाकर उदयपुर, गुगुन्दा, चावंड आदि के क्षेत्र को जीते. शाहबाज खां ने लगभग पूरा मेवाड़ को राणा प्रताप से फिर से छीन लिया और राणा को अपने महत्वपूर्ण पहाड़ियों के क्षेत्र से पीछे हटना पड़ा. मेवाड़ विजय के बाद मई 1578 में शाहबाज खां वापस चला गया. शाहबाज खां के लौटते ही राणा प्रताप ने तुरंत हमले आरंभ कर दिए और कुंभलगढ़ को छोड़ कर सारा क्षेत्र फिर फिर से मुगलों से छीन लिया. 11 नवम्बर, 1579 को शाहबाज खां ने फिर से मेवाड़ पर चढ़ाई की, परन्तु इस बार उसका उद्देश्य केवल महाराणा प्रताप को कैद करना था. उसने अपनी पूरी फ़ौज महाराणा के पीछे लगा दी. महाराणा ने बड़ी ही चतुराई से अपना बचाव किया. जन-सहयोग के कारण शाहबाज खां राणा प्रताप को बंदी नहीं बना पाया. कभी भील उनकी सुरक्षा में अपनी जान अड़ा देते थे तो कभी राणा के चाहने वाले उनके सुरक्षा में मदद करते थे. मुग़ल सेना ने हर पहाड़ी का चप्पा चप्पा छापा मारा परन्तु राणा और उसके परिवार तक पहुँच ना सकी. अंत में निराश होकर उसने वापस लौटने का निश्चय कर लिया. मई 1580 को अकबर ने शाहबाज खां को वापस बुला लिया. बाद में शाहबाज खां से अकबर ने अजमेर की सूबेदारी वापस ले ली और अब्दुर्रहीम खानखाना को अजमेर का सूबेदार बना दिया. अब मेवाड़ में सैनिक करवाई का दायित्व खानखाना पर आ गया. अब महाराणा प्रताप फिर सक्रीय हो गए. उन्होंने अनेक हमले कर कुंभलगढ़ सहित सम्पूर्ण पश्चिमी मेवाड़ पर कब्ज़ा कर लिया.
5 दिसम्बर 1584 को एक बार फिर जगन्नाथ कछावा ने राणा प्रताप को घेरा. इस बार का उद्देश्य राणा प्रताप को गिरफ्तार करना था, उसने पुरे पर्वतिये क्षेत्र में महाराणा का पीछा किया, परन्तु गिरफ्तार करने में असमर्थ रहा. इस प्रकार हल्दीघाटी के प्रसिद्ध युद्ध के बाद अकबर ने अनेक आक्रमण किये अनेक चाले चली परन्तु वह महाराणा के लिए परेशानी पैदा करने के अलावा और कुछ भी नहीं कर सका. न अकबर चैन से बैठा और ना ही उसने महाराणा को चैन की सांसे लेने दी परन्तु उसने अपनी सारी ताकते झोंक कर भी महाराणा को अंतिम रूप से झुका ना पाया. अनेक संघर्षो और युद्धों के बाद बार बार मेवाड़ राज्य कई बार मुगलों के हाथों चला गया पर अंततः महाराणा ने मंडलगढ़ और चित्तौड़गढ़ को छोड़कर पुरे मेवाड़ में अपना अधिपत्य स्थापित कर ही लिया.
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