Maharana Pratap · July 22, 2016 3

युद्ध की समीक्षा और अकबर द्वारा मेवाड़ को पूरी तरह से कब्जे में लेना

अपने भाई मेवाड़ के महाराणा प्रताप सिंह को अपना घोड़ा देने के बाद शक्तिसिंह नदी तैर कर नदी पार की और किसी तरह से छुपता छुपाता मुग़ल छावनी तक पहुंचा. जब वहां पहुंचा तो शक्तिसिंह ने देखा की चारों तरफ अफरातफरी मची हुई है “महाराणा भाग गया महाराणा भाग गया…” का शोर हर तरफ था. परन्तु किसी के भी चेहरे में जीत की ख़ुशी नहीं थी. महाराणा और उनके वीर सैनिकों ने युद्ध भूमि में जो कौशल दिखाया था उसके कारण उनके छावनी में एक कौतुहल सा मचा था. सभी मुग़ल सैनकों के चेहरों में महाराणा का आतंक साफ़ साफ़ नजर आ रहा था.. महाराणा का युद्ध से सकुशल निकल जाने से उन्हें दो सन्देश मिले थे, एक तो वे महाराणा को नहीं जीत सके जिसके कारण सागर सी विशाल मुग़ल सेना के मुख में एक जोरदार तमाचा पड़ गया था, महाराणा ने ना केवल वहां से निकल कर दिखाया अपितु अपने विचित्र रण कौशल से असीम बहादुरी का परिचय भी दिया था जो की शत्रुओं के दिल में दहशत का कारण बन बैठा था. और दूसरा ये था की उन्हें मन ही मन ये भय सता रहा था की कहीं फिर से महाराणा अपने मुट्ठी भर सैनिकों को लेकर ना आ जाए और अपने घोड़े के तापों तले हमें रौंद डाले. शहजादा सलीम का दिमाग चकरा गया. उसकी समझ में नहीं आ रहा था की इतना बड़ा करिश्मा हुआ कैसे. इतने कम सैनिको के साथ घोड़े पर सवार महाराणा प्रताप ने तीन दिन तक मुगलों की एक लाख वाली सेना को बुरी तरह से रौंद डाला. मुग़ल सेना के बीचोबीच पहुँच कर उसने राजा मानसिंह, स्वयं उसे और लगभग सभी मुग़ल सरदारों को चुनौती दी और जब वह इतनी बुरी तरह घायल हो गया और उसके सभी बहादुर साथी मारे गए तब मुग़ल सेना के व्यूह को चीरता हुआ वह घायल राणा युद्ध स्थल से सुरक्षित बहार निकल गया? उसके पास एक घोडा और एक तलवार के अलावा और कुछ भी नहीं बचा था. इतनी घायल स्थिति में तो बाख कर कोई भी नहीं निकल सकता था फिर ऐसी हालत में ये चमत्कार हुआ कैसे. शहजादा सलीम, मानसिंह और उसके सरदारों के साथ बैठ कर युद्ध की तहकीकात कर रहा रहा था. तब तक कुछ सैनिक वहां आ पहुंचे और और शहजादे सलीम को यह सूचना दी की शक्तिसिंह को मुग़ल छावनी में देखा गया है. उसे उसी दिशा से आते देखा गया है जिधर राणा भगा था. शहजादे सलीम को शक्तिसिंह में शक हुआ. उसके पास पहले से ही एक सूचना थी की महाराणा के युद्ध स्थल से भाग जाने के बाद शक्तिसिंह भी अपने घोड़े में बैठ कर वहां से गायब हो गया था. कुछ ही समय में शहजादे सलीम के पास दो सैनिक आ गए और उन्हें सूचना दी की यहाँ से कुछ दूर में राणा प्रताप के घोड़े का शव पड़ा है और पास में ही दो मुग़ल सैनिकों के कटे हुए सर भी पड़े है, यह सुनते ही शहजादा सलीम क्रोध से पागल हो उठा. उसने तुरंत ही शक्तिसिंह को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया. मुग़ल सैनिकों ने शक्तिसिंह को गिरफ्तार कर लिया. पूछताछ के समय शक्तिसिंह ने एक बहादुर राजपूत की तरह आगे बढ़ कर मुग़ल सैनिकों के हत्या का अभियोग स्वीकार किया. शक्तिसिंह का उत्तर सुनकर सलीम का सिर घूम गया. वह यह निष्कर्ष में पहुंचा की यदि आज शक्तिसिंह ने घयाल महाराणा की रक्षा नहीं की होती तो आज महाराणा मुग़लो की गिरफ्त में होता. राणा प्रताप की जीवित बाख जाना मुगलों की हार थी. हल्दीघाटी का युद्ध जीत कर भी वो हार गए थे और वे अच्छी तरह से जानते थे की यदि महाराणा जीवित बाख गए है तो वे चुचाप बैठने वाले नहीं है. इस जीत को मुग़ल अपनी अंतिम जीत नहीं कह सकते थे. शक्तिसिंह का अपराध को संगीर्ण अपराध माना गया. उसे मुग़ल दरबार में विद्रोह की संज्ञा दी गयी तथा अंतिम निर्णय तक कैद में रखने का आदेश दे दिया. शक्तिसिंह के घोड़े पर सवार राणा प्रताप दूर पहाड़ियों में पहुंचे. वहां उन्हें वफादार भील मिल गए. भीलों ने महाराणा को एक गुप्त गुफा में ले गए. वहां उनके चिकित्सा और देखभाल की पूरी व्यवस्था कर दी. और स्वयं हाथों में बाण लेकर दूर दूर तक बिखर गए और मुग़ल सेना की गतिविधियों पर नजर रखने लगे. कई दिनों की चिकित्सा और देखभाल के बाद महाराणा के घाव भरने शुरू होने लगे. वे गुफा में बैठे सोच रहे थे –कितना भयानक और विनाशकारी युद्ध था. तीन दिन के युद्ध ने 20 हजार सैनिकों में से 14 हज़ार सैनिकों को निगल गया, मेरे सभी महत्वपूर्ण स्तम्भ मेरी रक्षा के लिए अपना प्राण न्योछावर कर दिए. जब उन्होंने चेतक के बारे में सोचा तो वो उसी समय फूट फूट कर रो पड़े , वे सोचने लगे की पता नहीं कौन सा मंत्र झालापति ने चेतक के कानो में फूंका की चेतक अपनी मौत से झूझ कर मेरी रक्षा हेतु वायुवेग से दौड़ पड़ा, उनकी समझ में ही नहीं आ रहा था की चेतक दौड़ रहा है या वायु में उड़ रहा है, उसकी छलांग देख कर शत्रु के माथे भी पसीने आ जाये. अपने युद्ध की समीक्षा करते करते महाराणा भावुक हो गए. फिर उन्हें शक्तिसिंह का ध्यान आया- वे सोचने लगे की अगर शक्तिसिंह वहां सही समय पर ना पहुंचा होता तो उनका बचना तो लगभग असंभव था. शक्तिसिंह को गद्दार कहूँ या मेवाड़ का रक्षक…आज जो मेवाड़ पति राणा प्रताप इस गुफा में बैठा है वो केवल शक्तिसिंह के कारण ही. वो इस बात से बहुत दुखी थे क्योंकि इस युद्ध में राजपूत ही दुसरे राजपूत से लड़ा था. यह अकबर की ही निति थी की राजपूतों को राजपूतों के विरुद्ध लडवाया जाए. ये सब सोचते सोचते सोचते राणा प्रताप को एकाएक अपने हार की एक और कारण याद आया वो था तोंपो का प्रहार जिसके कारण राजपूत सैनिकों के पाँव उखड़ गए थे. भीलों के विष बुझे तीरों ने मुगलों को पीछे हटने में मजबूर कर तो दिया था पर जब उन्होंने तोंपो का इस्तेमाल किया तब हम कमजोर पड़ गए थे काश अगर हमारे पास भी कुछ तोंपे होती तो आज युद्ध का परिणाम कुछ और ही होता. ये सब सोचते सोचते महाराणा को गश आ गया,उनके घाव अभी पूरी तरह से भरे नहीं थे. मन में आया तनाव पुरे शारीर में दुष्प्रभाव छोड़ सकता था. उधर मानसिंह ने अकबर को मुगलों के जीत का समाचार दे दिया. जब अकबर ने युद्ध से लौटे सैनिकों की समीक्षा की तो उसे ये भरोसा हो गया की वो केवल नाम का ही युद्ध जीता है महाराणा का आतंक उनके चेहरे में से साफ़ साफ़ नजर आ रहा था. उन्हें देख के लग रहा था की मुग़ल सैनिक शत्रु के बंदीगृह से लौटे है और वहां उन्हें खूब पीटा गया है. गुप्तचरों ने अकबर को सूचना दी की युद्ध में चौदह हज़ार सैनिको के मारे जाने के बावजूद राजपूतों में उत्साह भरा पड़ा है, उन्हें इस बात की बेहद ख़ुशी है की उनका महाराणा सही सलामत जीवित बच गया है.अकबर को पता था की अब राजपूत तोंपो का इस्तेमाल करेंगे जिनके कारण उन्हें भारी क्षति पहुंची है. इसलिए वह तुरंत ही अजमेर पहुंचा और अजमेर से मोहि पहुंचा. उसने मोही में गाजी खां को तैनात किया, उसके साथ शरीफ अटका मुजाहिद्दीन खां और शुभान अली तुर्क को छोड़ा तथा तीन हज़ार का लश्कर दिया. मोहि से अकबर गोगुदा पहुंचा वहां का दायित्व उसने राजा भगवानदास और कुत्तुब्बुद्दीन मोहम्मद खां को सौंपा. शाह फक्रुद्दीन तथा जगन्नाथ कछावा को उदयपुर में तैनात किया . इस प्रकार से अकबर ने स्वयं मेवाड़ क्षेत्र में पहुंचकर लगभग पुरे मेवाड़ को अपने कब्जे में ले लिया. कुछ जंगल और पहाड़ियां ही बचे थे जिनमे महाराणा छिपे थे. अब भी महाराणा का आतंक मुग़ल सेना में इतना था की उन पहाड़ों व् जंगलों को घेरकर, मुग़ल सेना राणा पर हमला करने को तैयार नहीं थी, जहाँ महाराणा छुपा था. मुग़ल सेना में ये डर था की कहीं अभी महाराणा गोरिल्ला युद्ध कर उन्हें गाजर मूली की तरह ना काट डाले. कुछ दिनों तक स्वयं अकबर अपने विशाल शाही फ़ौज के साथ मेवाड़ पर ही रहा. और उसके जाने के साथ ही महाराणा प्रताप ने प्रत्याक्रमण कर धीरे धीरे मेवाड़ का अधिकतर भो भाग को मुगलों से आजाद करवा लिया.
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