शक्तिसिंह महाराणा प्रताप के छोटे भाई थे, उन्हें अपनी बहादुरी पर बहुत गर्व था. वे अपने आप को किसी भी तरह प्रताप से कम मनाने को तैयार न थे, उनके अहं ने उन्हें प्रताप से टकराने को विवश किया. अपने अहम् की तुष्टि के लिए उन्हें कोई और आधार मिलता, इससे पहले ही उन्हें राज्य निर्वासन का आदेश मिल गया. अपमान और प्रतिशोध की ज्वाला में जलते शक्तिसिंह उदयपुर से चले तो गए, परन्तु अपने बड़े भाई और मेवाड़ के महाराणा प्रताप सिंह से बदला लिए बिना उन्हें चैन नहीं था.
कई बार उनके मन में आया की एक बार वो प्रताप के सामने खड़े हो और उन्हें द्वंद युद्ध के लिए ललकारे, फिर या तो वे प्रताप की जान ले ले या फिर उनके हाथों अपनी जान गँवा दे. शक्ति सिंह के लिए अपनी क्षत्रिये धर्म की यही परिभाषा थी. उनके मन में ये कभी नहीं आया की उनके पिता महाराणा उदयसिंह को मुगलों से मुकाबला करने में न जाने कितने कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, कितने राजपूत योद्धाओं को बिना किसी अपराध के अपने प्राण गंवाने पड़े थे, कितनी राजपूत ललनाओं को जौहर कर, युवास्था में अपने प्राण गंवाने पड़े थे, अब ये सोचना राणा प्रताप जैसे राजपूतों का काम था, और राणा प्रताप जैसे महापुरषों को नष्ट करने का सोच रखना शक्ति सिंह जैसे संकीर्ण सोच वाले राजपूतों का काम था.
इस देश का यही दुर्भाग्य रहा है की राणा प्रताप जैसे व्यापक सोच वाले राजपूत राजा कम पैदा हुए है और शक्ति सिंह जैसे दम्भी और आत्मकेंद्रित राजपूत अधिक पैदा हुए. उन दिनों समूचा देश राजपूतो के छोटे छोटे राज्यों में बंटा था. ऐसे दंभी राजपूतो के राज्यों में जो अपनी मिथ्या हठ और झूठे स्वाभिमान के लिए एक-दुसरे से प्रतिशोध लेने, एक-दुसरे को बर्बाद करने के अतिरिक्त कुछ और नहीं सोच पाते थे. वो भूल जाते थे की प्रजा पर शासन करने का दयित्व्य उन्हें मिला था, उनका भी कोई स्वाभिमान है, वे भी किसी व्यक्तित्व, किसी पहचान के हक़दार है, उनकी भी कुछ महत्वाकांक्षाये है, अथवा सामन्य इच्छाएं हो सकती है. उनके लिए प्रजा केवल प्रजा थी और सबसे उपर था उनका दंभ. जिसकी पूर्ति करते समय वे प्रजा की हर इच्छा की बलि देने में भी नहीं चुकते थे. राजपूतों की इसी हठधर्मी और संकीर्णता ने उन्हें एक-दुसरे से टकराने और टकराते रहने पैर विवश किया.
बात यही समाप्त हो जाती तब भी शायद भारतवर्ष इतना ताबाह ना होता. बात तो इससे भी आगे जा पहुंची थी. प्रतिशोध की ज्वाला में राजपूत इतने अंधे हो जाते थे की वे अपनी मातृभूमि, अपनी जन्मभूमि, अपना परिवार, अपने रिश्ते-नाते यहां तक की अपना मित्र-धर्म, अपना जातीय दायित्व, अपना सामाजिक दायित्व तक भूल जाते थे. बुध्दिहीन हिंसक पशु की तरह चोट करने पर आमादा हो जाते थे. जब वे अपना बल तोलने पर उससे बदला लेने के लिए कम पते अथवा अपनी कोई विवशता देखते थे तो रुकते नहीं थे, अपितु विदेशी सम्रज्वादी ताकतों, लुटेरों और हमलावरों से हाथ मिला लेते थे. ये हमलावर प्रतिशोध की ज्वाला में जलते राजपूत राजा की मदद करने की उद्देश्य से नहीं आते थे, उसके आड़ में अपना स्वार्थ पूरा करने आते थे. ऐसे नेक हमलावरों और लुटेरों को भारत के अनेक राजाओ ने अपने विरोधी राजाओ का दम्भ चूर करने के लिए विदेशी धरती से भारतवर्ष में बुलाया और उनके लिए भारत वर्ष को गुलाम बनाने का रास्ता खोल दिया.
भारत के धरती पर अनेक मुस्लिम ताकतों का जमाव यूँ ही नहीं हो गया था, शक्ति सिंह की नस्ल के घमंडी और महत्वकांक्षी चरित्र इसके लिए जिम्मेदार थे. अकबर मुग़ल सल्तनत का तीसरा बादशाह था, उसके दादा ने बाबर ने भारत में प्रवेश किया था और राजपूत राजाओं की कमजोरियों का फायदा उठाकर उसने अपने देश का एक हिस्सा में अपना राज्य स्थापित कर लिया. बाबर के पुत्र हुमायु ने राज्य सीमओं का विस्तार किया, अकबर ने अपने दादा और पिता के लड़ाकू जीवन तथा साम्राज्य स्थापित करने व उसका विस्तार करने की नीतियों को बारीकी से समझा और उसने वही किया, जो कमजोरियां भरे इस देश में मुग़ल साम्राज्य के विस्तार के लिए सबसे अनुकूल था. इतना ही नहीं अकबर अपने पूर्वजों से भी कहीं आगे निकल गया, उसने हिन्दू व इस्लाम धर्म में समन्वय के भरी प्रयास भी किये, परन्तु दोनों प्रकार की धार्मिक कट्टरता के कारण उसे अपने उद्देश्यों मे सफलता नहीं मिली. अकबर में मानवता और राजनितिक कूटनीति दोनों का अच्छा समन्वय था. वह एक अच्छा इंसान बनना चाहता था, तथा हिन्दू व मुसलमान दोनो पक्षों को भी अच्छे इंसान बनाना चाहता था, परन्तु इस दिशा में काम करते समय वह बहुत सावधानी से काम करता था, वह कभी इतना नहीं बहका की दोनों पाटों में पिस जाए, उसने पुरे होश हवास में प्रयास किये, परन्तु जब उसने देखा की उसके साम्राज्य को कोइ खतरा हो सकता है तो उसने तुरंत पैंतरा बदल दिया, और वह सफल साम्राज्यवाड़ी शाषक साबित हुआ. साम दाम दंड भेद सभी राजनितिक दांव पेंच का इस्तेमाल करते हुए अकबर भारत का प्रसिद्ध शासक के रूप में उभरा, यही कारण है की अकबर का मूल्यांकन करने में काफी सारी कठिनाइयाँ आती है. अकबर में शक्ति से नहीं, तर्क और तरकीब से जीतने की क्षमता थी.
शक्ति सिंह अपनी प्रतिशोध की ज्वाला को शांत करने के लिए अकबर के पास जा पहुंचा, अकबर जनता था, की शक्ति सिंह का इस्तेमाल कैसे और कहाँ किया जा सकता है, उसने वही किया अकबर ने शक्ति सिंह को पूरा सम्मान दिया, उसके अआहत अहं को शांत करने के लिए राणा प्रताप से टकराने का रास्ता भी सुझाया, परन्तु शक्ति सिंह पर इतना कभी भरोसा कभी नहीं किया की युद्ध की कमान उसके हाथों में सौंप देता, शक्ति सिंह ने अकबर के बिना पुछे ही राणा प्रताप की सारी कमजोरियां और सीमाये बता दी, और जिद्द की कि राना प्रताप को निचा दिखानी का अवसर दिया जाए. इसपर अकबर ने शक्तिसिंह को सुझाया की प्रताप को नीचा दिखाने के लिए बड़े स्तर में सैनिकों के आक्रमण के स्थान पर क्यों ना राणा प्रताप को धोखे से पकड़ लिया जाए, खून खराबा कम हो तो ज्यादा अच्छा हो, इसपर शक्ति सिंह ने इसे राजपूती धर्म के विरुद्ध समझा और इसका विरोध किया. अकबर को समझते देर ना लगी की शक्ति सिंह शक्तिशाली तो है पर विवेक शुन्य है., इसलिए इसका इस्तेमाल राणा प्रताप के भेद और कमजोरियों को जानने के लिए ही किया जा सकता है, इससे ज्यादा छुट देने पर ये पकड़ से बाहर हो जायेगा.
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Comments
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